
राजनैतिक व्यंग्य-समागम
1. असत्य का पुजारी : विष्णु नागर*
राजा हरिश्चंद्र से लेकर महात्मा गांधी तक सत्य के प्रति गहरी निष्ठा रखने वाले कम नहीं हुए हैं, मगर असत्य के प्रति गहरी निष्ठा रखने वाला भारत में आज तक अकेला केवल एक ही हुआ है। उसे आप भी जानते हैं और वह भी जानता है कि आप उसे जानते हैं। वही जिसने स्वतंत्रता दिवस पर अपने ही भाषण का रिकार्ड तोड़ते हुए 103 मिनट का भाषण दिया। 140 करोड़ लोगों के इस देश में वह अकेला है और विश्व में भी उसके मुकाबले आने की हिम्मत करने वाले बमुश्किल दो-चार होंगे। अगर नहीं होंगे तो भी आश्चर्य नहीं, क्योंकि भारत विश्वगुरू है! पिछले 11 साल में उसने एक दिन के लिए भी झूठ बोलने का अपना संकल्प नहीं तोड़ा। सच तो यह है कि उसने एक घंटे के लिए भी अपने ऊपर सच बोलने का 'कलंक' नहीं लगने दिया। कितने ही संकट आए, कितनी ही चुनौतियां आईं, कितनी ही उसकी खिल्ली उड़ाई गई, मगर वह असत्य के पथ से कभी डिगा नहीं। स्वतंत्रता दिवस पर भी इस संकल्प पर वह अडिग रहा। असत्य को उसने कभी अकेला छोड़ा नहीं! उसका झूठ हर दिन, हर जगह पकड़ा गया। फिर भी असत्य वीर इससे विचलित नहीं हुआ। पथ से डिगा नहीं। लोगों ने उसे बार-बार झूठा कहा, लबार कहा, फेंकू कहा, पर वह घबराया नहीं, शरमाया नहीं, लजाया नहीं, भरमाया नहीं, हिला नहीं, डुला नहीं,भूला नहीं। उसने एक बार भी असत्यवादी होने का खंडन किया नहीं। इस यथार्थ से उसने मुंह मोड़ा नहीं। ऐसा भी नहीं कि उसने कि सौ बार झूठ बोला और एक बार सच बोल दिया। असत्यव्रत को उसने खंडित नहीं होने दिया। अपनी यह साख उसने बनाये रखी। जैसे गांधी जी स्वाभाविक रूप से सच बोलते थे, यह उतने ही स्वाभाविक रूप से झूठ बोलता है। आप-हम जितने आत्मविश्वास से सच नहीं बोल सकते, उससे सौ गुना अधिक आत्मविश्वास से यह झूठ बोलता है। कमाल है कि झूठ बोलते समय उसके चेहरे पर एक शिकन तक नहीं आती, इसलिए भी काफी लोग उसके दीवाने हैं। भारत के पांच हजार साल के ज्ञात इतिहास में देश की कमान संभालने वाला यह पहला और शायद अंतिम व्यक्ति है, जिसने झूठ का झंडा देश-विदेश में अभिमान के साथ गाड़ दिया है। इसके पहले लोकल लेबल के लबार हुए हैं, जो जूते खाकर चुप बैठ गए। यह बैठा नहीं, उठा ही रहा।एक बार इसने असत्य के पथ पर कदम बढ़ा दिए, तो फिर इसने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। सच बोलने के लिए कितने इंच का सीना चाहिए, यह तो गांधी जी ने कभी बताया नहीं। यह राज उन्होंने जनता से छुपा कर रखा, जबकि असत्यवादी ने यह राज नहीं छुपाया। बताया कि इसके लिए छप्पन इंच का सीना होना चाहिए। इधर हम जैसों का हाल यह है कि कोई छोटा-सा झूठ भी पकड़ लिया जाए, तो हमारी घिग्घी बंध जाती है।आंख और नाक से पानी आने लग जाता है। लगता है, धरा फट जाए और उसमें समा जाएं! तो खैर, उस आदमी की असत्य के प्रति गहरी निष्ठा की बात हो रही थी। दिलचस्प बात यह है कि उसने भी उसी गुजरात भूमि को 'पवित्र' किया, जिस पर कभी महात्मा गांधी जन्म ले चुके थे। गनीमत यह रही कि इस धराधाम से जब गांधी जी कूच कर गए, उसके भी साढ़े सात महीने बाद पदार्पण किया, वरना यह तो जन्म लेने के दिन से ही यह अफवाह उड़ा देता कि मैंने, महात्मा गांधी ने पुनर्जन्म लिया है। गांधी जी बाल-बाल बच गए, क्योंकि यह तो पिछले साल नान-बायोलॉजिकल भी हो चुका है।यह कभी भी जन्म ले सकता था। फिर भी गुजराती होने के नाते इसकी गांधी जी पर अतीव कृपा रही कि इसने देर से जन्म लेकर उन्हें बख्शा। उसने यह सिद्ध करके दिखा दिया कि जिस धरती पर सत्य का पुजारी पैदा हो सकता है, उसी पर झूठ का व्यापारी भी जन्म ले सकता है। धरती का कोई भाग न इतना पवित्र है, न इतना अपवित्र कि उसमें गांधी पैदा हो, तो मोदी पैदा नहीं हो सकता! यह बिल्कुल गांधी जी का 200 प्रतिशत विलोम है। गांधी जी ने बचपन में मगरमच्छ का बच्चा नहीं पकड़ा था, यह कहता है कि इसने पकड़ा था। गांधी जी बैरिस्टर थे और इसका उन्हें कतई गर्व नहीं था। यह दसवीं पास है और उसे इसका ही नहीं, अपने हिंदू होने का भी गर्व है। गांधी जी को दक्षिण अफ्रीका से वापस भारत आने पर कोई सर्टिफिकेट दिखाने की जरूरत नहीं पड़ी थी, इसने फर्जी प्रमाण पत्रों का अंबार लगा रखा है। गांधी जी ने अपने बचपन से जवानी तक और जवानी से बुढ़ापे तक अपने बारे में एक भी गप नहीं मारी, इसके पास गप्पों का विश्व रिकॉर्ड है। आज का अखबार आपने पढ़ा होगा, तो आज भी इसने इस पिटारे में से कुछ निकाल कर जनता के सिर पर दे मारा होगा! गांधी जी को सच बोलने में तनिक भी हिचक नहीं थी, इसे झूठ बोलने में हिचक नहीं। गांधी जी शरीर पर केवल खादी की एक चादर लपेटते थे। यह कपड़ों का भंडार लेकर चलता है। दिन में छह बार महंगे-महंगे कपड़े बदलता है। गांधी जी के शिष्य और साथी नेहरू-पटेल जैसे पाये के लोग थे, इसके साथी शाह और अडानी जैसे लोग हैं। गांधी जी कस्तूरबा को छोड़ने की कल्पना नहीं कर सकते थे, इसने दिल्ली की गद्दी पर बैठने से पहले तक यह छुपाया कि यह शादीशुदा है। इसने एक काम जरूर पाज़िटिव किया है कि उन लोगों का घमंड तोड़ दिया,जो यह दावा करते थे कि हमने गांधी को देखा है। आज लोग उससे भी अधिक गर्व से यह कहते पाए जाते हैं कि हमने मोदी को देखा है। इस तरह इसने भक्तों को गांधी ग्रंथी से उबारा है।इसके लिए भारत इसका हमेशा ऋणी रहेगा।
(कई पुरस्कारों से सम्मानित विष्णु नागर साहित्यकार और स्वतंत्र पत्रकार हैं।)
2. जैसे उनके दिन फिरे, वैसे सबके दिन फिरें…! : राजेंद्र शर्मा*
देखिए, देखिए, यह तो बिल्कुल भी ठीक बात नहीं है। माना कि यह लाल किले से मोदी जी का बारहवां भाषण था। इस बारहवें भाषण में ही मोदी जी को आरएसएस की महानता की याद आयी। यानी 2014 में मोदी जी के नयी आजादी लाने के बाद भी, आरएसएस को न ज्यादा न कम, पूरे बारह साल इंतजार करना पड़ा कि लाल किले से मोदी जी उसकी तारीफें करें, उसका गुणगान करें। उसकी देशभक्ति का बखान करें। अपने स्वयंसेवक होने का लाल किले पर चढक़र एलान करें। जी हां! बारह साल लंबा इंतजार। उतना इंतजार, जितने इंतजार के बाद घूरे के दिन भी फिर जाते हैं। लेकिन, सिर्फ इंतजार के साल बारह होने से ही, यह अर्थ कोई कैसे निकाल सकता है कि मोदी जी की नजर में आरएसएस कोई घूरा है। और यह अर्थ तो हर्गिज नहीं निकाल सकते हैं कि मोदी जी ने आरएसएस के साथ घूरे वाला सलूक किया है। अपने राज में आरएसएस के दिन तब तक नहीं फिरने दिए, जब तक कि उनके घूरे तक के दिन नहीं फिर गए। जब सब के दिन फिर चुके -- अडानी जी के, अंबानी जी के, हिंदुजा जी, टाटा जी वगैरह, वगैरह के ; उसके बाद ही कहीं जाकर आरएसएस के दिन फिरने दिए। ये सब संघ के परिवार में झगड़ा लगाने की बातें हैं। परिवार में कलह बढ़ाने की बातें हैं। क्या है कि बेचारों के परिवार में सब कुछ पहले ही ठीक नहीं चल रहा है। ऊपर-ऊपर से तो सब ठीक नजर आता है, पर भीतर-भीतर काफी खींच-तान है। बाकी तो छोड़िए, भगवा पार्टी के अध्यक्ष के सलेक्शन पर झगड़ा शुरू हो गया, तो समेटे में आने का नाम ही नहीं ले रहा है। करीब डेढ़ साल होने आए, नड्डा जी को एक्सटेंशन पर ही गुजारा करते। न गद्दी पर कोई दूसरा आता है और न पक्का दूसरा कार्यकाल मिलता है। ऐसे में मोदी जी ने जरूर अपनी तरफ से नागपुरिया आकाओं को खुश करने की कोशिश की है। माना कि खास मोदी स्टाइल में खुश करने की कोशिश की है — दे न बांट की भुसी, बातों से ही कर दे खुशी ; पर खुश करने की कोशिश तो की है। विरोधी इसे घूरे के बारह साल से जोड़कर, नाहक बात और बिगाड़ने की कोशिश कर रहे हैं। यह बात भी समझने वाली है कि मोदी जी ने सिर्फ लाल किले से आरएसएस की तारीफ भर नहीं की है। मोदी जी की सरकार के पेट्रोलियम तथा गैस मंत्रालय ने बाकायदा एक पोस्टर जारी कर, सावरकर को गांधी, सुभाष, भगत सिंह, तीनों से ऊपर और तिरंगे से भी ऊपर बैठाने की जुगत भी भिड़ाई है। और असली बात यह कि यह तो इब्तदा-ए-इश्क है ; आगे-आगे देखिए होता है क्या? सावरकर पर गांधी की हत्या के षडयंत्र के लिए मुकद्दमा चलाया गया था। उस सावरकर को अगर बारह साल होने पर सबसे ऊपर, गांधी से भी ऊपर बैठाया जा सकता है, तो कल को उस गोडसे को मोदी सरकार के पोस्टरों में आने से कौन रोक सकता है, जिसने गांधी का ‘वध’ कर के फांसी के फंदे को चूमा था। फिर यह तो शुरुआत है। प्लीज अब कोई ये मत कहने लगना कि सरकारी पोस्टर में सावरकर के सबसे ऊपर आने से ही क्या होता है? असली मुद्दा तो यह है कि गोलवलकर जी ऐसे पोस्टरों में कब आएंगे! आएंगे, गोलवलकर जी भी आएंगे। हेडगेवार जी भी आएंगे। भागवत जी भी आएंगे। सारे के सारे जी लोग ही आएंगे। जल्द ही आएंगे। बाकी सब को हटाएंगे, बस ‘जी’ लोग ही रह जाएंगे। बस थोड़ा धीरज चाहिए। सब होगा, बस मोदी राज को जरा-सा टैम और मिल जाए। बस संघ पिचहत्तर साल की उम्र में मोदी जी को मार्गदर्शक मंडल में आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी की संगत में बैठाने की जिद न पकड़ कर बैठ जाए। सच पूछिए तो मोदी जी को लाल किले से आरएसएस पर गर्व करने में, बारह साल इसीलिए लग गए कि वह पक्का काम करना चाहते थे। कहते हैं, सहज पके सो मीठा। संघ के लिए एक नया इतिहास पक कर तैयार होने के लिए, बारह साल इतने ज्यादा भी तो नहीं हैं। आखिर, आरएसएस को राष्ट्रद्रोही से, राष्ट्रवादी साबित करना था। उसने जिस आजादी की लड़ाई के खिलाफ काम किया, उसका अगुआ बनाना था। उसके सिर पर जिन अंगरेजों ने हमेशा अपना हाथ रखा, उसे उनका पक्का विरोधी साबित करना था। आजादी की लड़ाई में उनकी हिस्सेदारी की लकीर, जो कहीं थी ही नहीं, उसे सबसे लंबा करना था। मुगलों-वुगलों को ही नहीं, गांधी, नेहरू, पटेल, सुभाष, भगतसिंह, सब को उनके ऊंचे आसनों से नीचे उतारना था। कांग्रेस को देश के विभाजन का दोषी और आरएसएस को देश की एकता का झंडाबरदार साबित करना था। सांप्रदायिकता को राष्ट्रवाद साबित करना था। सांप्रदायिकता के लिए आजादी के बाद तीन-तीन बार लगी पाबंदियों को, आरएसएस के साथ हिंदू-विरोधियों का अन्याय साबित करना था। जाहिर है कि यह काम जल्दी में नहीं हो सकता था। यह काम जल्दी में अच्छा और पक्का नहीं हो सकता था। मोदी जी ने जरूर बारह साल लंबा रास्ता लिया, पर काम पक्का किया। एनसीईआरटी का स्कूली बच्चों के लिए नया पाठ है— विभाजन के तीन दोषी—जिन्ना, कांग्रेस और माउंटबेटन। इस सिलसिले में आरएसएस का जिक्र सिलेबस के बाहर है। और मोदी जी ने सिर्फ जुबानी जमा-खर्च थोड़े ही किया है। उन्होंने सिर्फ आरएसएस की तारीफ करके ही नहीं छोड़ दिया है। उन्होंने आरएसएस के एजेंडा को जोर-शोर से आगे बढ़ाने का एलान भी तो किया है। सुना नहीं कैसे उन्होंने पहली बार लाल किले से एलान किया कि आबादी के बदलाव से हिंदू खतरे में पड़ रहा है। परायों की घुसपैठ से देश के लिए खतरा बढ़ रहा है। सीमावर्ती इलाकों में ऐसी घुसपैठ से राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा बढ़ता जा रहा है। इसीलिए, तो बिहार मार्का एसआइआर जरूरी है, अकेले बिहार में ही नहीं, देश भर में। पहले, घुसपैठिए वोटर लिस्ट से बाहर किए जाएंगे, फिर समाज और देश से। नहीं तो, लव जेहाद से बहन-बेटियों पर खतरा आ जाएगा, बल्कि आ गया है। वे जमीन जिहाद कर के हमारे लोगों की जमीनें छीन रहे हैं। रोटी-रोजगार जिहाद कर के नौजवानों के रोटी-रोजगार को हड़प कर रहे हैं। मोदी जी ऐसा होने नहीं दे सकते हैं। पर पता नहीं, हिंदुओं के कैसे दिन फिर रहे हैं कि मोदी जी जैसे-जैसे खुले मैदान में उतरकर हिंदुओं को बचाने के लिए तलवार चलाते हैं, वैसे-वैसे हिंदू ज्यादा खतरे में आते जाते हैं। कौन जाने ज्यादा खतरे में आना भी दिन फिरना हो। कम से कम मोदी परिवार के दिन फिरना तो जरूर है।
(व्यंग्यकार वरिष्ठ पत्रकार और 'लोकलहर' के संपादक हैं।)*
Leave A Comment
Don’t worry ! Your email address will not be published. Required fields are marked (*).