
राजनैतिक व्यंग्य समागम
1. वोट चोर, गद्दी छोड़!
एक दिशा से आवाज़ आई -- 'वोट चोर, गद्दी छोड़।' वोट चोर ने इस कान से सुना, उस कान से निकाल दिया।
फिर दो दिशाओं से आवाज आई, तो भी उसने यही किया। जब तीन दिशाओं से आवाज आने लगी, तो उसने दोनों कानों में रुई ठूंस ली। मगर जब चारों दिशाओं से यही आवाज आने लगी, तो वह कुछ-कुछ घबराया, कुछ-कुछ चौंका! मैं और चोर? फिर भी उसने कहा कि अच्छा जी, मेरे रहते ऐसा हो गया है। वोटों की चोरी हो गई है! मुझे तो पता ही नहीं चला। मुझे पहले पता चल जाता, तो मैं उसे तुरंत रोक देता। मैं घनघोर लोकतांत्रिक मानवी हूं। मुझे पद का शौक नहीं। हार जाता, तो झोला उठाकर चल देता! खैर, अब मैं असली चोर का पता लगाऊंगा और उसे कड़ी से कड़ी सजा दिलवाऊंगा। इसके बावजूद आपको शक है कि मैं ही वोट चोर हूं, तो इस तथाकथित चोरी के पाप के प्रक्षालन के लिए मैं आज ही अपने सिर पर उस्तरा चलवाने को तैयार हूं, मगर तब आपको मुझे वोट चोर कहना बंद करना होगा! केश त्याग का हिंदू धर्म में बहुत महत्व है! मगर 'वोट चोर, गद्दी छोड़' की आवाज़ थमी नहीं। लोगों ने कहा, हमें तुम्हारे सिर के बालों से कोई मतलब नहीं। वैसे भी तुम गंजे हो। त्यागने के लिए तुम्हारे पास कुल चार ही तो बाल हैं। फिर भी बाल तो तुम जितने चाहे, उगा लो। पूरी खोपड़ी बालों से भर लो, मगर हो तो तुम वोट चोर। 'वोट चोर गद्दी छोड़।' उसने कहा -- 'गद्दी! और मैं गद्दी छोड़ दूं? यह हो नहीं सकता! गद्दी कोई छोड़ता है भला? गद्दी छोड़ने के लिए होती है! मैं जीवन छोड़ सकता हूं, गद्दी नहीं। चलो फिर भी तुम्हारा मन रखने के लिए मैं अपनी बरसों से प्यार से पाली हुई दाढ़ी छोड़ सकता हूं, जिसमें एक भी तिनका नहीं है। फिर तो मैं चोर लगूंगा भी नहीं।' लोगों ने कहा, हमें तेरी दाढ़ी से कोई मतलब नहीं। तू चाहे तो गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर जैसी दाढ़ी रख ले। चंद्रशेखर आजाद जैसी मूंछें उगा ले। चोर तो फिर भी चोर ही रहेगा। 'वोट चोर गद्दी छोड़।' अच्छा ऐसा है कि आजकल के चोर ऐनक पहनने लगे हैं।मैं भी ऐनक पहनता हूं। चलो, मैं इस महंगी ऐनक का त्याग करने के लिए तैयार हूं। गद्दी बचाने के लिए कोई भी त्याग छोटा नहीं। वैसे भी मुझे पढ़ने-लिखने में कोई दिलचस्पी नहीं! पढ़ने-लिखने वालों को मैं अपना दुश्मन मानता हूं। फिर आवाज आई, तू ऐनक तो बच्चों की तरह एक के ऊपर चाहे चार और पहन ले या दस-बीस पहन ले। देशी पहन ले या विदेशी पहन ले। एक लाख की पहन ले या दस लाख की पहन ले या मत पहन, मगर ' वोट चोर, गद्दी छोड़।' अच्छा चलो, 'मैं जूते पहनना छोड़ दूंगा। चप्पल पहनने लगूंगा। अब तो खुश। अब तो नहीं कहोगे, वोट चोर....'उन्होंने कहा, तू जूते पहन या चप्पल पहन या चाहे नंगे पांव रह। 'वोट चोर, गद्दी छोड़।' उसने कहा, अच्छा चलो, बंडी पहनना छोड़ सकता हूं। उससे भी जब बात नहीं बनी, तो उसने कुर्ता उतारने का प्रस्ताव दिया। फिर उसने कहा कि बनियान भी उतार दूंगा। उसने कहा, मैं कुर्सी के लिए तो पजामा भी उतार सकता हूं, मगर इसके अंदर अंडरवियर नहीं है। फिर भी चलो, कुछ करके दिखाता हूं। तब भी चारों ओर से एक ही आवाज आ रही थी -- 'वोट चोर गद्दी छोड़।' चोर अंदर गया। पजामा छोड़कर चड्डी पहनकर आया। तभी वह आवाज़ आई। अरे बेशर्म चोर, कपड़े पहन, गद्दी छोड़।
बेशर्म चड्डी में गद्दी पर बैठा रहा।
नीचे से आवाज़ आई - राजा नंगा है।
राजा ने कहा, नहीं, राजा खाकी चड्डी में है।
नीचे से आवाज़ आई -- 'वोट चोर, गद्दी छोड़।'
अगली बार जब आवाज़ आई -- 'वोट चोर' तो चोर ने भी नारे में जवाब दिया -- 'गद्दी छोड़।'
अगली बार खुद चोर ने नारा लगाया -- 'वोट चोर'
नीचे से आवाज़ आई है- 'गद्दी छोड़।'
कभी जनता कहती 'वोट चोर', तो चोर कहता,' गद्दी छोड़।'
कभी चोर कहता, 'वोट चोर ' तो जनता कहती -- 'गद्दी छोड़।'
और इस तरह चोर यह खेल जनता से खेलता रहा और जब वह समझ गया कि उसके इस खेल को भी जनता समझ गई है, तो वह अंतर्ध्यान हो गया।
(कई पुरस्कारों से सम्मानित विष्णु नागर साहित्यकार और कवि हैं। स्वतंत्र लेखन में सक्रिय।)
विरोधियो कुर्सी छोड़ो!
लीजिए, अब क्या मोदी जी-शाह जी विरोधियों से कुर्सी छुड़वाने का कानून भी नहीं बना सकते हैं। और कानून अभी बना ही कहां है। अभी तो सिर्फ विधेयक पेश हुआ है यानी कानून की मुंह दिखाई हुई है और वह भी मानसून सत्र के ऐन आखिर में। विधेयक पेश हुआ और हाथ के हाथ संसदीय समिति को भेज दिया गया। संसदीय समिति की छान-बीन के बाद विधेयक संसद में आएगा, तब चर्चा वगैरह के बाद कहीं जाकर उसे पारित कराने का नंबर आएगा। बल्कि पारित कराने का नंबर तो तब आएगा, जब दो-तिहाई की गिनती होगी। जब नौ मन तेल होने के कोई आसार ही नहीं हैं, फिर राधा के नाचने की बात पर इतनी तकरार क्यों? ऊपर से शोले छाप डॉयलागबाजी भी – बसंती, इन कुत्तों के सामने मत नाचना! कुत्तों का इतनी अपमानजनक भाषा में उल्लेख तो अपने आप में गलत है। देखा नहीं कैसे कुत्तों के मामले में सुप्रीम कोर्ट तक को हाथ के हाथ अपना फैसला बदलना पड़ा है। ये विरोधी हैं किस खेत की मूली। खैर! मूल मुद्दे पर लौटें और मुद्दा यह है कि कानून-वानून कुछ नहीं, यह तो महज एक स्वांग है, वोट चोरी के हंगामे से ध्यान बंटाने के लिए। क्या 140 करोड़ भारतीयों की चुनी हुई, मोदी जी की सरकार, पब्लिक का मूड बदलने के लिए, विरोधियों से कुर्सी छुड़वाने का जरा-सा स्वांग भी नहीं कर सकती है? यह कोई नहीं भूले कि यह अगस्त का महीना है। अगस्त का महीना यानी ‘‘भारत छोड़ो’’ आंदोलन का महीना। इसी महीने में मोदी जी के लाल किले से अपने नागपुरी मात-पिता संगठन को देशभक्ति वगैरह के सर्टिफिकेट देने के बाद से, एक बार फिर इसका शोर मचना शुरू हो गया है कि इन्होंने तो आजादी की लड़ाई में कोई हिस्सा ही नहीं लिया था, नाखून कटाने के बराबर भी नहीं। और ‘‘भारत छोड़ो’’, उसके तो वो पूरी तरह से खिलाफ थे। उनके वीर सावरकर, श्यामा प्रसाद मुखर्जी वगैरह अंगरेजी फौज के लिए नौजवानों की भर्ती करा रहे थे और अंगरेजी हुकूमत से ‘‘भारत छोड़ो’’ आंदोलनकारियों की बगावत को पूरी तरह से कुचलने की अपीलें कर रहे थे। पर यह सब अगर सही भी मान लिया जाए तब भी, इससे सिर्फ इतना ही तो साबित होता है कि नागपुर परिवार वालों की आजादी की लड़ाई की गाड़ी छूट गयी थी। पर तब तक बेचारा नागपुरी कुनबा था भी तो बच्चा ही। भारत छोड़ो के टैम पर नागपुरी कुनबा कुल सोलह बरस का किशोर ही तो था, नाबालिग। इस उम्र में कौन सब काम सही टैम पर कर पाता है। बेचारे जब तक आजादी की लड़ाई में हिस्सा लेने के लिए स्टेशन पर पहुंचे होंगे, ट्रेन छूट चुकी होगी। अंगरेज भारत छोड़ने का एलान कर चुके थे। मन मारकर बेचारों को देश के मुसलमानों से ही लड़ना पड़ा। उनसे भी नहीं लड़ते तो लोग क्या कहते, जवानी किसी काम नहीं आयी? फिर वो तो क्रांतिकारी थे, अहिंसा के विरोधी। अंगरेज तो जा चुके थे, मारते कैसे? जाकर गांधी को मार आए। खैर, किस्सा कोताह ये कि नागपुरी भाइयों की आजादी की लड़ाई की ट्रेन तब छूट गयी, इसका मतलब यह तो नहीं है कि उनकी आजादी की लड़ाई की ट्रेन हमेशा के लिए ही छूट गयी। सुना नहीं है क्या -- लाइफ दूसरा चांस जरूर देती है। 2014 से आजादी की लड़ाई में हिस्सेदारी का उनका दूसरा चांस ही तो चल रहा है। देखा नहीं कैसे दूसरे चांस में, पहले चांस वालों की पोलें खुल रही हैं। गांधियों की, नेहरूओं की, सरदार पटेलों की, सब की पोलें। और उसी अनुपात में, दूसरे चांस वालों की वीरगाथाएं निकल रही हैं। सावरकर, वीर तो खैर वह स्वघोषित ही थे, उससे ऊपर उठकर अब महानतम बन रहे हैं। देखा नहीं, कैसे इसी पंद्रह अगस्त को पेट्रोल और गैस मंत्रालय ने जो पोस्टर निकाला, आजादी की लड़ाई के पहले चांस वालों के झूठे प्रचार में आग लगाने वाला था। सावरकर सब से ऊपर, गांधी से भी ऊपर, भगत सिंह से भी ऊपर, सुभाष बोस से भी ऊपर! बेशक, दूसरे चांस में भी अभी गोडसे जी को उनका उचित स्थान नहीं मिल सका है। पर सब होगा, धीरे-धीरे सब होगा। सावरकर और आरएसएस के महिमा गान से शुरूआत हो गयी है। जमीनी सतह पर गोडसे जी का शहादत दिवस और जन्म दिवस मनाए जाने की शुरुआत हो गयी है, अब बस थोड़े से वक्त की ही बात है। और जब दूसरे चांस में सब कुछ हो ही रहा है, तो दूसरा भारत छोड़ो भी क्यों नहीं? पर अंगरेज तो पहले भारत छोड़ो के बाद ही भारत छोड़कर चले गए। जरा सोचिए कितना हास्यास्पद लगेगा कि दूसरे चांस में ‘‘अंगरेजो भारत छोड़ो’’ का नारा लगाया जाए, पर भारत छोड़ने के लिए कोई अंगरेज हो ही नहीं। इसीलिए, मोदी जी-शाह जी ने ‘‘छोड़ो’’ तो ऑरीजिनल रखा है, पर अंगरेज और भारत दोनों को हटाकर, नये जमाने के हिसाब से ‘‘विरोधियों, कुर्सी छोड़ो’’ कर दिया है। सच पूछिए तो विरोधियों भी अंडरस्टुड है, वर्ना अब असली नारा तो ‘‘कुर्सी छोड़ो’’ ही है, जैसे पहले चांस में भी असली नारा तो ‘‘भारत छोड़ो’’ ही था। कुछ इतिहासकारों का तो मानना है कि भारत किसे छोडऩा है, इसी की अस्पष्टता की वजह से, नागपुर परिवार और उनके संगी-संगाती, पहले वाले चांस में ‘‘मुसलमानों, भारत छोड़ो’’ चला रहे थे। उनकी देखा-देखी सरकारों में उनके संगी, लीग वाले ‘‘हिंदुओं, पाकिस्तान छोड़ो’’ चलाने लगे। नतीजा यह कि अंगरेजों ने भारत तो छोड़ा, पर हिंदुस्तान और पाकिस्तान में बांटकर छोड़ा। पर उसमें भी नागपुरी परिवार के साथ धोखा हो गया। पाकिस्तान तो लीग को मिल गया, पर हिंदुस्तान की पतंग गांधी-नेहरू-पटेल ले उड़े। बेचारे नागपुरिए तब तो मुंह खोलकर कह भी नहीं पाए कि 1947 वाली आजादी झूठी है। 2014 में ही आकर कह पाए हैं कि सच्ची आजादी तो यह है! खैर, कहते हैं कि पुरानी आदतें आसानी से छूटती नहीं हैं। नागपुरियों की पहले चांस की ‘‘मुसलमानों, भारत छोड़ो’’ वाली आदत भी कहां छूटी है। तभी तो मोदी जी ने लाल किले से इस बार एक और ललकार की है: ‘‘घुसपैठियों, भारत छोड़ो।’’ माल वही है, बस पैकेजिंग का रंग बदल गया है। मुसलमान का नाम बदलकर, घुसपैठिया कर दिया है। पर पहले चांस वाले भी कहां बाज आ रहे हैं। भारत छोड़ो के दिन से उन्होंने भी एक नया ही छोड़ो शुरू कर दिया है -- वोट चोर, गद्दी छोड़!
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