
हमारी ट्रेन को जन्मदिन की बधाई! जानिए 172 साल में कहां तक पहुंची हमारी रेलगाड़ी
दया शंकर चौधरी
16 अप्रैल को रेलगाड़ी (Train) का जन्मदिन है ! 172 साल पहले 16 अप्रैल 1853 को दो स्टेशनों के बीच दौड़ी थी ट्रेन, तालियों और तोपों की सलामी से गूंजा था स्टेशन। 172 वर्ष पहले भारत में रेल (Rail) की शुरुआत से जुड़े कई दिलचस्प किस्से हैं। आइये जानते हैं आखिर 16 अप्रैल 1853 को देश की पहली रेलगाड़ी कब रवाना हुई, कितनी दूरी तक चली और कितने यात्रियों ने इस सफर का आनंद लिया।
मुम्बई में 1853 का वह दिन ऐतिहासिक था जब उस दिन वहाँ सार्वजनिक अवकाश घोषित कर दिया गया था। उस दिन दोपहर तीन बजकर पैंतीस मिनट पर 21 तोपों की सलामी के साथ बोरीबंदर से ठाणे के लिए पहली बार 14 डिब्बों की एक ट्रेन रवाना हुई थी। उस पर सवार थीं बंबई के गवर्नर फ़ॉकलैंड की पत्नी लेडी फ़ॉकलैंड और 400 अति विशिष्ट आमंत्रित लोग। इस ट्रेन को तीन इंजन खींच रहे थे, जिनके नाम थे ‘सिंध, सुल्तान और साहब।’ उस ट्रेन ने 34 किलोमीटर का सफर 1 घंटा 15 मिनट में तय किया था। उस समय बोरीबंदर से ठाणे का पहले दर्जे का किराया 2 रुपये 10 आने तय किया गया था। दूसरे दर्जे का किराया था एक रुपये 1 आना और तीसरे दर्जे का किराया था 5 आना 3 पैसा। तब से लेकर आज तक भारतीय रेल ने यहाँ के लोगों पर ऐसी छाप छोड़ी है जिसे मिटाया नहीं जा सकता।
….और अब 172 साल बाद कहां से कहाँ तक पहुंची भारत की रेल
.....और आज...172 साल बाद हमारी ट्रेनें पारंपरिक ट्रेनों की तुलना में काफी अधिक गति से यात्रियों और माल को ले जाती हैं, आमतौर पर 200 से 350 किलोमीटर प्रति घंटे (124 से 217 मील प्रति घंटे) के बीच चलती है।
आजादी के अमृत महोत्सव के दौरान ट्रेन से सफर करने वाले यात्रियों को रेल मंत्रालय लगातार एक से एक खास तोहफे दे रहा है। देश में चल रहीं वंदे भारत ट्रेनों का अपग्रेटेड वर्जन शीघ्र ही लाया जा रहा है। बता दें कि 2019 में दो वंदे भारत ट्रेन की शुरुआत हुई थी। जिसमें से एक नई दिल्ली से कटरा जाती है तो वहीं, दूसरी नई दिल्ली से वाराणसी तक का सफर तय करती है। वंदे भारत ट्रेन यात्रियों को काफी पसंद आ रही है। क्योंकि ये तेज रफ्तार में तो चलती ही है साथ ही अलग-अलग सुविधाओं से लैस भी है।
रेल मंत्रालय और सरकार का लक्ष्य 2025 तक अधिक से अधिक वंदे भारत ट्रेनें चलाने का है। रेल मंत्री के मुताबिक, वंदे भारत के अपग्रेडेड वर्जन मौजूदा ट्रेन से एडवांस होंगे। बता दें कि अभी चल रहीं वंदे भारत ट्रेनों की अधिकतम स्पीड 160 किमी प्रति घंटा है। वंदे भारत नई सदी की वो ट्रेन है, जो भारतीय रेल को हाई स्पीड ट्रेन की गति और सोच दोनों को आगे बढ़ा रही है। बता दें कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 15 अगस्त 2021 में स्वतंत्रता दिवस के मौके पर कहा था कि देश भर में 75 वंदे भारत ट्रेनें चलाई जाएंगी।
जम्मू कश्मीर के लिए स्पेशल डिजाइंड वंदे भारत ट्रेन
अप्रैल की हल्की ठंडक और वसंत की खिलती बहार... हिमालय की बर्फीली चोटियाँ, सेब के पेड़ों पर गुलाबी फूलों की चादर, और मैदानों की हरी घास — यह सब अब सिर्फ कल्पना नहीं रहेगा। क्योंकि अब जल्द ही, यह सब आप अपनी आंखों के सामने, जम्मू कश्मीर के लिए स्पेशल डिजाइंड वंदे भारत ट्रेन में बैठकर देख सकेंगे। जैसे ही ट्रेन पहलगाम की घाटियों से गुजरेगी, हरियाली से सजी वादियाँ, दूर तक फैले चीड़ के जंगल और चरवाहों की झलक आपको एक लम्हे में रोक देंगे। देवदार की खामोशी को चीरती वंदे भारत की रफ्तार — तकनीक और प्रकृति का अद्भुत संगम जल्द ही आपको देखने को मिलेगा।
इंजीनियरिंग का कमाल
"मेक इन इंडिया" के तहत इंटीग्रल कोच फैक्ट्री (ICF) में बनी यह ट्रेन आधुनिक तकनीक और सुविधाओं से लैस है, जो बिजली सी चलती है। मगर सुरक्षित और आरामदायक सफर की मिसाल है। इसका सफर हर भारतीय को गर्व से भर देगा।
क्यों खास है कश्मीर वाली वंदे भारत
यह वंदे भारत एक्सप्रेस विश्वसनीयता, सुरक्षा और यात्रियों के आराम को सुनिश्चित करने के लिए अत्याधुनिक तकनीक एवं उन्नत सुविधाओं से युक्त है। इस वंदे भारत ट्रेन को कश्मीर घाटी की कठिन जलवायु परिस्थितियों में सुगम यात्रा प्रदान करने के लिए डिजाइन किया गया है। जिससे अब हर मौसम में कश्मीर घाटी तक पहुंचना आसान होगा और वंदे भारत एक्सप्रेस की शुरुआत, क्षेत्र में यात्री सेवाएँ एवं पर्यटन अनुभव बेहतर बनाएगी।
ज़ीरो से नीचे तापमान, फिर भी कनेक्टिविटी बरकरार
जम्मू-कश्मीर जैसे सर्द मौसम वाले क्षेत्र में सुचारू रेल संचालन सुनिश्चित करने के लिए इस वंदे भारत ट्रेन में विशेष तकनीकी सुविधाएँ प्रदान की गई हैं।
सिलिकॉन हीटिंग पैड: यह वॉटर और बायो-टॉयलेट टैंकों में पानी को जमने से रोकेंगे। साथ ही, इनमें ओवरहीट प्रोटेक्शन सेंसर लगे हैं, जो यह सुनिश्चित करता है कि शून्य या माइनस तापमान में भी रेल संचालन सुचारू रूप से हो।
हीटेड प्लंबिंग पाइपलाइन: जीरो डिग्री से भी कम तापमान में सेल्फ-रेगुलेटेड हीटिंग केबल्स पानी को जमने से रोकेंगे।
ऑटो-ड्रेनिंग मैकेनिज्म: प्लंबिंग लाइनों में पानी के जमने की समस्या को रोकेगा, जिससे संचालन में कोई बाधा नहीं आएगी।
यात्रा होगी सुगम और सुरक्षित
कश्मीर की कठिन परिस्थितियों में ड्राइवर की सुरक्षा और सुविधा सुनिश्चित करने के लिए इस वंदे भारत ट्रेन में अत्याधुनिक तकनीक का उपयोग किया गया है, जिससे सुगम यात्रा संभव होगी।
एंबेडेड हीटिंग एलिमेंट: फ्रंट लुकआउट ग्लास में लगाए गए यह एलीमेंट सर्द मौसम में विंडशील्ड को डी-फ़्रॉस्ट कर ड्राइवर को क्लियर विज़न प्रदान करेंगे, जिससे सुरक्षित व सुगम ट्रेन संचालन हो सकेगा।
एंटी-स्पॉल लेयर: बर्फबारी या आंधी जैसे कठिन मौसम के दौरान यह लेयर ड्राइवर को सुरक्षित ट्रेन के संचालन में सहायता करेगा।
सुरक्षित और आरामदायक वर्क एनवायरनमेंट: ट्रेन को कठिन मौसम परिस्थितियों से निपटने के लिए स्पेशल रूप से डिज़ाइन किया गया है।
भारतीय रेल की न्यू-एज टेक्नोलॉजी
इस वंदे भारत ट्रेन के सुचारू संचालन और यात्रियों के आराम के लिए कई तकनीकी सुविधाएं सुनिश्चित की गई हैं।
एयर ड्रायर सिस्टम हीटिंग: अत्याधिक ठंड में एयर ब्रेक सिस्टम की दक्षता बनाए रखेगा। साथ ही, हीटिंग, वेंटिलेशन और एयर कंडीशनिंग (HVAC) डक्ट्स द्वारा यात्रियों की आरामदायक यात्रा सुनिश्चित की गई है ।
5 kVA ट्रांसफॉर्मर: ट्रेन के महत्वपूर्ण घटकों के सुचारू संचालन और ठंडे मौसम में उनकी दक्षता बनाए रखने के लिए इसे अंडरफ्रेम में विशेष रूप से स्थापित किया गया है।
पूर्ण वातानुकूलित कोच: सेमी-हाई-स्पीड क्षमताओं (160 किमी प्रति घंटे) से लैस होंगे, जिससे तीव्र और समयबद्ध यात्रा संभव होगी।
आधुनिक सुविधाएँ: चौड़े गैंगवे, स्वचालित प्लग डोर, मोबाइल चार्जिंग सॉकेट, इंफोटेनमेंट सिस्टम और सीसीटीवी जैसी सुविधाएँ यात्रियों के अनुभव को सुगम बनाएंगी।
यात्रा में विकास का अनुभव
कश्मीर घाटी में वंदे भारत एक्सप्रेस की शुरुआत रेल यात्रा में एक ऐतिहासिक बदलाव का प्रतीक है। यह सेवा सभी मौसमों में निर्बाध कनेक्टिविटी सुनिश्चित करेगी, जो बर्फबारी, कठोर ठंड और कठिन पर्वतीय चुनौतियों को पार कर सुगम यात्रा का भरोसा दिलाती है। आधुनिक सुविधाओं और जलवायु-विशिष्ट अनुकूलन के साथ, यह ट्रेन यात्रियों को बेहतर यात्रा अनुभव प्रदान करेगी। कश्मीर घाटी को सम्पूर्ण देश से अभूतपूर्व रूप से जोड़ने के साथ वंदे भारत एक्सप्रेस भौगोलिक और आर्थिक अंतर को भी समाप्त करेगी।
रेलवे बजट में 2.55 लाख करोड़ रुपये आवंटित, जानिए इस मद में क्या-क्या बड़े एलान हुए
भारतीय रेल देश की जीवनरेखा है। बजट में रेलवे के लिए बड़े एलान होने की उम्मीद थी, लेकिन इस बार सरकार ने रेलवे के बजट में कोई खास बड़े एलान करने से परहेज किया है। आइए जानते हैं कि सरकार ने रेलवे बजट में किन-किन चीजों को प्राथमिकता दी है और क्या कुछ अहम प्रावधान किए हैं।
केंद्रीय बजट में रेलवे मंत्रालय के लिए 2.55 लाख करोड़ रुपये आवंटित किए गए हैं। इनमें राजस्व में 3445 करोड़ रुपये और कैपिटल एक्सपेंडिचर में 2,52,000 करोड़ रुपये खर्च किए जाएंगे। इस तरह रेलवे बजट में कुल 2,55,445 करोड़ रुपये का प्रावधान किया है। बजट में पेंशन फंड में 66 हजार करोड़ रुपये रखे गए हैं। नई लाइनें बिछाने के लिए 32,235 करोड़ रुपये खर्च किए जाएंगे। लाइनों के दोहरीकरण में 32,000 करोड़ और गॉज लाइन में बदलने में 4,550 करोड़ रुपये का बजट तय किया गया है।
रेलवे में विभिन्न मदों में कितने बजट का किया गया है ऐलान
बजट में सिग्नलिंग और टेलीकॉम के लिए 6800 करोड़, विद्युत लाइनों के लिए 6,150 करोड़ रुपये, स्टाफ कल्याण पर 833 करोड़ रुपये का बजट तय किया गया है। रेलवे स्टाफ की ट्रेनिंग उद्देश्य के लिए 301 करोड़ रुपये खर्च होंगे। वहीं रेलवे सेफ्टी फंड में 45 हजार करोड़ रुपये ट्रांसफर किए जाएंगे।
रेल मंत्रालय रेल हादसों को कम करने के लिए खास कदम उठाने जा रहा है। इसके तहत देश के प्रमुख रेलवे रूट पर कचव का अपग्रेट वर्जन 4.O लगाने का काम तेजी से किया जाएगा। कवच के नए वर्जन को रिसर्च डिजाइन एंड स्टैंडर्ड आर्गनाइजेशन (आरडीएसओ) ने हाल में अप्रूवल दे दिया है। मंत्रालय ने बजट में इसे लेकर कोई भी नई घोषणा नहीं की है और इसके बजाय पूर्व की घोषणाओं को पूरा करने पर जोर दिया गया है। रेलवे मंत्रालय के अनुसार भारतीय रेलवे के सबसे व्यस्त रूटों में से दिल्ली-मुंबई और दिल्ली-कोलकाता शामिल हैं। इन दोनों रूटों को कवच से लैस किया जा रहा है। साथ ही मुंबई-चेन्नई व चेन्नई-कोलकाता रूट पर भी कवच लगाया जाएगा। इस तरह कुल मिलाकर करीब 9 हजार किमी लंबे ट्रैक को कचव से लैस करने की तैयारी है।
रेलवे में कैपेक्स पर आवंटन बढ़ाने की उम्मीद
रेलवे से जुड़े एक सूत्र के अनुसार आने वाले बजट में रेलवे के पूंजीगत व्यय (कैपेक्स) पर आवंटन 20 फीसदी तक बढ़ाए जाने की उम्मीद थी। रेलवे के अनुमानों के अनुसार पिछले बजट में इस मद में मिले 2.65 लाख करोड़ रुपये में से रेलवे ने करीब 80 फीसदी खर्च कर लिए हैं। एक शीर्ष अधिकारी के अनुसार रेलवे बोर्ड ने चालू वित्तीय वर्ष में दो लाख करोड़ रुपये से अधिक खर्च किए हैं।
भारतीय रेल का कार्यकारी ढांचा
भारतीय रेल (IndianRailway), भारत सरकार-नियंत्रित सार्वजनिक रेलवे सेवा है। भारत में रेलवे की कुल लंबाई 67415 किलोमीटर है। भारतीय रेलवे रोजाना 231 लाख यात्रियों और 33 लाख टन माल ढोती है। भारतीय रेलवे के स्वामित्व में, भारतीय रेलवे में 12147 लोकोमोटिव, 74003 यात्री कोच और 289185 वैगन हैं और 8702 यात्री ट्रेनों के साथ प्रतिदिन कुल 13523 ट्रेनें चलती हैं। भारतीय रेलवे में 300 रेलवे यार्ड, 2300 माल ढुलाई और 700 मरम्मत केंद्र हैं। यह दुनिया की चौथी सबसे बड़ी रेलवे सेवा है। 1227 लाख कर्मचारियों के साथ, भारतीय रेलवे दुनिया की आठवीं सबसे बड़ी व्यावसायिक इकाई है। रेलवे विभाग भारत सरकार के मध्य रेलवे विभाग का एक प्रभाग है, जो भारत में संपूर्ण रेलवे नेटवर्क की योजना बना रहा है। रेलवे विभाग की देखरेख रेलवे विभाग के कैबिनेट मंत्री द्वारा की जाती है और रेलवे विभाग की योजना रेलवे बोर्ड द्वारा बनाई जाती है।
देश के 15वें महामहिम राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की रेल यात्रा
देश की धड़कन भारतीय रेल है। इसमें कोई शक नहीं है। तभी तो देश के प्रथम नागरिक 15वें राष्ट्रपति राम नाथ कोविन्द ने इसी से यात्रा कर अपने पैतृक घर जाना उचित समझा। जी हां, महामहिम राम नाथ कोविन्द ने 25 जून 2021 को दिल्ली से कानपुर की यात्रा रेलगाड़ी से करने का निर्णय लिया था। करीब 15 साल के बाद ऐसा मौका आया जबकि राष्ट्रपति ने रेल की सवारी करने का निर्णय लिया है। इससे पहले राष्ट्रपति रहते हुए डा एपीजे अब्दुल कलाम ने दिसंबर 2006 में रेल यात्रा की थी। रेलवे के पास परंपरागत रूप से प्रेसिडेंट सलून है। देश के प्रथम राष्ट्रपति डा राजेंद्र प्रसाद से लेकर डा एपीजे अब्दुल कलाम तक, कई राष्ट्रपति ने इसी से यात्रा की थी। लेकिन अब यह सलून काफी पुराना हो चुका है। इसलिए आजकल इसे रेलवे म्यूजियम में रख दिया गया है। राष्ट्रपति राम नाथ कोविन्द ने जिस ट्रेन में यात्रा की है, वह है महाराजा एक्सप्रेस। यह ट्रेन लग्जरी टूरिस्ट ट्रेन है। इसी ट्रेन के कुछ डिब्बे प्रेसिडेंट स्पेशल में जोड़े गये थे।
डॉ राजेंद्र प्रसाद ने बनाया था रिकॉर्ड
राष्ट्रपति के रूप में सबसे अधिक ट्रेन से यात्रा करने का रिकार्ड देश के प्रथम राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद के नाम दर्ज है। डॉ प्रसाद ने राष्ट्रपति रहते हुए देश भर की यात्रा ट्रेन से की थी। उनका मानना था कि ट्रेन से यात्रा करने से ही देश की विविध संस्कृति को भली भांति जान सकते हैं। उन्होंने दिल्ली से छपरा तक की यात्रा अपने पैतृक गांव जीरादेई जाने के लिए भी की थी। उसके बाद भी कई राष्ट्रपतियों ने ट्रेन यात्रा की थी।
जल्दी ही छा गया था रेलवे का जादू
अगर 1846 में अमरीका में कपास की फ़सल बरबाद नहीं हुई होती तो शायद रेलवे को भारत में आने में थोड़ा समय और लगता। दरअसल रेलवे की शुरुआत इसलिए की गई थी ताकि भारत में उगने वाले कपास को मैनचेस्टर की कपड़ा मिलों तक आनन-फानन में पहुंचाया जा सके। पाँच सालों में ही रेलवे का जादू इस क़दर बोलने लगा था कि बहादुर शाह ज़फ़र ने आज़मगढ़ उद्घोषणा में साफ़ कहा था, “अगर हम दोबारा भारत के बादशाह बनते हैं, तो ये हमारा वादा है कि भारत के व्यापारियों को शासन की तरफ़ से रेलवे लाइनें उपलब्ध कराई जाएंगी, ताकि वो सारे देश में खुलेआम तिजारत कर सकें।” ‘द परवेयर्स ऑफ़ डेस्टिनी- अ कलचरल बायॉग्राफ़ी ऑफ इंडियन रेलवेज़’ के लेखक अरूप चटर्जी मीडिया रिपोर्ट्स में बताते हैं “रेलवे का ऐसा जाल बिछा कि पहले 20 मील को तय करने में जितना समय लगता था, उतने ही समय में 400 मील तय किए जाने लगे।”
वो कहते हैं, “ट्रेन ने न सिर्फ़ रानीगंज की कोयला खदानों से कोयले की आपूर्ति को तेज़ किया, बल्कि उस दौरान अक्सर पड़ने वाले सूखे में शासन की तरफ़ से होने वाले राहत कार्यों में भी सक्रिय भूमिका निभाई। इन रेलवे लाइनों को बिछाने में जहाँ इंग्लैंड में प्रति किलोमीटर दो हज़ार पाउंड लगते थे, वहीं भारत में इसका खर्चा था अठ्ठारह हज़ार पाउंड प्रति किलोमीटर, यानि इंग्लैंड से नौ गुना ज़्यादा।” दिलचस्प बात ये थी कि 1857 के बाद से बनाए गए ज़्यादातर रेलवे स्टेशन सैनिक छावनियों के पास बनाए गए थे और उनको इस तरह से डिज़ाइन किया गया था कि ज़रूरत पड़ने पर उन्हें एक मज़बूत सैनिक ठिकाना बनाया जा सके।
आज़ादी की लड़ाई में भूमिका
डेविड कैंपियन अपनी किताब ‘रेलवे पुलिसिंग एंड सिक्योरिटी इन कॉलोनियल इंडिया’ में लिखते हैं, “लखनऊ के चारबाग रेलवे स्टेशन पर बाकायदा एक शस्त्रागार और बैरक बनाई गई थी, जहाँ ज़रूरत पड़ने पर शहर की तमाम यूरोपियन आबादी को पनाह दी जा सकती थी।” हालांकि अंग्रेज़ ये कतई नहीं चाहते होंगे, लेकिन रेलवे ने भारत के स्वाधीनता संग्राम में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। इसकी शुरुआत हुई थी दक्षिण अफ़्रीका के नगर पीटरमैरिट्ज़बर्ग में, जहाँ एक रात एक गोरे ने फ़र्स्ट क्लास के रेल के डिब्बे से महात्मा गांधी का सामान प्लेटफ़ार्म पर फेंक दिया था। ध्यान देने योग्य बात यह है कि वही गांधी जब 1915 में भारत वापस लौटे तो उन्होंने कभी फ़र्स्ट क्लास का रुख नहीं किया और हमेशा तीसरे दर्जे के डिब्बे में ही सफ़र किया। रेलवे का जितना राजनीतिक इस्तेमाल गांधी ने किया, उतना शायद किसी भी भारतीय नेता ने नहीं।
जानकार बताते हैं कि अप्रैल, 1915 में जब गांधी और कस्तूरबा हरिद्वार से मद्रास पहुंचे, तो स्टेशन पर उनके स्वागत में आए लोग उन्हें ढ़ूंढ़ ही नहीं पाए। गाँधी उन्हें तब मिले जब एक ट्रेन गार्ड ने उन्हें बताया कि गांधी तीसरे दर्जे में ट्रेन के सबसे आखिरी डिब्बे में हैं। एक बार गाँधी ने भारतीय ट्रेन में अपना अनुभव बताते हुए लिखा था, “हम बंगलौर से रात को ट्रेन से मद्रास जा रहे थे। हमें एक रात के आराम की सख़्त ज़रूरत थी, लेकिन हमें वो नसीब ही नहीं हुआ। आधी रात को हम लोग जोलारपेट जंक्शन पहुंचे। ट्रेन को वहाँ चालीस मिनट तक रुकना था। हमारे साथ चल रहे मौलाना शौकत अली ने भीड़ से चले जाने के लिए कहा। लेकिन वो जितना अनुरोध करते वो उतनी ही ज़ोर से चिल्लाते, ‘मौलाना शौकत अली की जय!’ आख़िर में मौलाना ने हार मान ली और वो आँख मूंद कर सोने का नाटक करने लगे। लोग डिब्बे की खिड़की से उचक उचक कर मौलाना और हमें देखने लगे।”
हरिलाल सिर्फ कस्तूरबा के लिए लाए थे संतरा
वो लिखते हैं, “हमने जैसे ही डिब्बे की बत्ती बुझाई, वो लालटेनें ले आए। आख़िर में मैंने ही सोचा कि मैं ही कुछ कोशिश करता हूँ। मैं उठा और दरवाज़े की तरफ़ गया। मुझे देखते ही लोग खुशी से चिल्ला उठे। लेकिन मेरी किसी बात का उन पर कोई असर नहीं पड़ा। थक हार कर मैंने खिड़कियाँ बंद कर दीं। लेकिन वो कहाँ मानने वाले थे। वो बाहर से खिड़कियों को खोलने की कोशिश करने लगे।अपनी समझ में वो हमारे प्रति अपना प्यार दिखा रहे थे। लेकिन वास्तव में वे कितने अतर्कसंगत थे।”
महात्मा गाँधी और रेल के संबंध का एक बहुत ही मार्मिक चित्रण प्रमोद कपूर ने गाँधी पर लिखी जीवनी में किया है। गांधी जी और उनके बेटे हरिलाल गाँधी में अनबन हो गई थी और वो घर छोड़ कर चले गए थे। प्रमोद कपूर की किताब में लिखा गया है “एक बार हरिलाल को पता चला कि गाँधी और 'बा' ट्रेन से कटनी रेलवे स्टेशन से गुज़रने वाले हैं। वो अपनी माँ की एक झलक पाने के लिए कटनी स्टेशन पहुंच गए। वहाँ हर कोई महात्मा गाँधी की जय के नारे लगा रहा था। सिर्फ़ हरिलाल ही थे जो चिल्ला रहे थे, ‘कस्तूरबा माँ की जय!’ अपना नाम सुनकर 'बा' ने उस शख्स की ओर देखा जो उनका नाम पुकार रहा था। प्लेटफॉर्म पर हरिलाल गांधी खड़े थे। उन्होंने तुरंत अपने झोले से एक संतरा निकाला और कहा, बा ये मैं तुम्हारे लिए लाया हूँ। ये सुन कर गांधी बोले, मेरे लिए क्या लाए हो हरिलाल ? हरिलाल का जवाब था, मैं ये सिर्फ़ बा के लिए लाया हूँ। इतने में ट्रेन चल पड़ी। ट्रेन के साथ दौड़ते-दौड़ते हरिलाल ने चिल्ला कर कहा,’ बा..., ये संतरा सिर्फ़ तुम्ही खाना।”
नेता जी सुभाष चंद्र बोस और रेल का सफर
1941 में अपने घर में नज़रबंद सुभाषचंद्र बोस मोहम्मद ज़ियाउद्दीन का भेष बना कर पहले कार से गोमो रेलवे स्टेशन गए थे और फिर वहाँ से कालका मेल पकड़ कर पहले दिल्ली और फिर वहाँ से फ़्रंटियर मेल पर बैठ कर पेशावर पहुंचे थे। सगत बोस अपनी किताब ‘हिज़ मैजिस्टीज़ अपोनेंट’ में लिखते हैं, “ठीक एक बज कर 35 मिनट पर सुभाष ने मोहम्मद ज़ियाउद्दीन का भेष धारण किया। उन्होंने सुनहरे रिम का चश्मा पहना जिसे उन्होंने एक दशक से भी पहले से पहनना छोड़ दिया था। सिसिर उनके लिए जो काबुली चप्पल लाए थे, उसे पहनने में उन्हें थोड़ी उलझन महसूस हुई, इसलिए उन्होंने उस लंबी यात्रा के लिए अपना पुराना यूरोपियन जूता ही पहनने का फ़ैसला किया। विदा लेने से पहले उन्होंने अपनी भतीजी इला को प्यार किया। सुभाष कार की पीछे की सीट पर बांई तरफ़ बैठे। सिसिर ने स्टेयरिंग संभाला और वांडरर कार "बीएलए 7169" का इंजिन स्टार्ट किया। सुभाष बोस के बेड रूम की बत्ती जानबूझ कर एक घंटे तक जलते रहने दी गई।” वो लिखते हैं, “गोमो स्टेशन पर एक कुली ने बोस का सामान उठाया। सिसिर ने देखा, सुभाष अपनी राजसी चाल से स्टेशन की सीढ़ियाँ चढ़ रहे थे। थोड़ी देर में कलकत्ता की ओर से दिल्ली-कालका मेल आती दिखाई दी। सुभाष उस पर सवार हुए और मिनटों में धुएं के गुबार के बीच कालका मेल दिल्ली की तरफ़ बढ़ निकली। इसके बाद सुभाष अपने परिवार वालों से कभी नहीं मिले।”
फ़िल्मों में भारतीय रेल
भारतीय फ़िल्मों में भी ट्रेनों का ज़बरदस्त चित्रण देखने को मिलता है ‘आराधना’, ‘द बर्निंग ट्रेन’, ‘शोले’, ‘दिल वाले दुल्हनिया ले जाएंगे’, ‘परिणीता’ और ‘दिल से…’ न जाने कितनी फ़िल्में हैं जो ट्रेनों के इर्द गिर्द घूमती हैं। आराधना फिल्म का गाना ‘मेरे सपनों की रानी…’ दार्जिलिंग की मशहूर टॉय ट्रेन में फिल्माया गया था।
चाय… चाय.. रेलवे और चाय का नाता
भारतीय रेल और चाय का रिश्ता भी बहुत पुराना है। 1881 में बनी ‘इंडियन टी असोसिएशन’ ने भारत में चाय को प्रचलित करने के लिए रेल का ही सहारा लिया। पहले विश्व युद्ध के बाद बंगाल, पंजाब और उत्तर पश्चिम के स्टेशनों में मुफ़्त चाय पिलाने का चलन शुरू हुआ। जानकार बताते है, सन 1900 तक भारतीय लोगों को चाय का स्वाद नहीं लगा था, लेकिन बीसवीं सदी का अंत आते आते भारतीय लोग अपने देश में पैदा हुई 70 फ़ीसदी चाय खुद पीने लगे थे। उत्तरी भारत के रेलवे स्टेशनों में अभी भी यात्री की आँख खुलते ही पहली आवाज़ उसके कान में गूंजती है, ‘चाय..चाय..चाय गरम।’
कहा जाता है कि कॉलिन टॉडहंटर “चाय गरम” की इस आवाज़ से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने अपनी किताब ‘चेज़िंग रेनबो इन चेन्नई’ में लिखा, “मुझे पूरा यकीन है कि इन चाय वालों के लिए दिल्ली के किसी दूरदराज़ के इलाके में चाय गरम बोलना सिखाने के लिए ज़रूर एक स्कूल होता होगा। पता नहीं भारतीय लोग स्टेशन पर इतनी चाय क्यों पीते हैं? अगर ये अच्छी चाय हो तब भी बात समझ में आती है। लेकिन ये बेकार चाय होती है। वो एक छोटे कप में चार चम्मच चीनी और दूध डाल कर चाय को बरबाद कर देते हैं। एक ऐसे देश में जहाँ इतनी ज़्यादा चाय पैदा होती है, भारतीय रेल अभी तक का एक ढ़ंग का चाय का प्याला बनाने में महारत नहीं हासिल कर पाई है।”
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