
कट्टरवाद: जब विचारधारा संवाद खो देती है
कट्टरवाद किसी एक धर्म, दल या देश तक सीमित समस्या नहीं है। यह एक ऐसी वैचारिक तंगी है, जिसमें व्यक्ति या समूह अपनी मान्यता को अंतिम सत्य मानकर बाकी सभी दृष्टियों को अस्वीकार कर देता है। विचार का यह कठोर रूप जब राजनीति, धर्म या पहचान से जुड़ता है, तो वह समाज को जोड़ने के बजाय तोड़ने लगता है। भारत सहित पूरी दुनिया में पिछले कुछ दशकों में कट्टरवाद के बढ़ते प्रभाव ने यह स्पष्ट कर दिया है कि यह केवल सुरक्षा या कानून-व्यवस्था का प्रश्न नहीं, बल्कि लोकतंत्र, सामाजिक सौहार्द और मानव विकास के लिए एक गहरा खतरा है।
कट्टरवाद की सबसे बड़ी समस्या यह है कि वह असहमति को शत्रुता में बदल देता है। जहाँ विचारधाराएँ संवाद और बहस से मजबूत होती हैं, वहीं कट्टर सोच प्रश्न पूछने को अपराध मानती है। भारत जैसे विविधता-प्रधान देश में यह प्रवृत्ति विशेष रूप से घातक है। यहाँ धर्म, भाषा, जाति और क्षेत्र की बहुलता सामाजिक शक्ति रही है, लेकिन जब पहचान को राजनीतिक हथियार बनाया जाता है, तो वही विविधता तनाव का कारण बन जाती है। हाल के वर्षों में सामाजिक ध्रुवीकरण, अफवाहों पर आधारित हिंसा और ‘हम बनाम वे’ की मानसिकता इसी वैचारिक संकुचन का परिणाम मानी जाती है।
आँकड़े बताते हैं कि कट्टरवाद केवल वैचारिक बहस तक सीमित नहीं रहता, बल्कि वास्तविक हिंसा में बदलता है। वैश्विक स्तर पर उपलब्ध विभिन्न अध्ययनों के अनुसार, 2010 के बाद से वैचारिक या धार्मिक प्रेरित हिंसा की घटनाओं में उल्लेखनीय वृद्धि देखी गई है। मध्य पूर्व में चरमपंथी संगठनों का उभार, यूरोप में नस्लवादी दक्षिणपंथी हिंसा और एशिया में धार्मिक कट्टरता—ये सभी अलग संदर्भों में एक ही मानसिक ढाँचे को दर्शाते हैं। यह ढाँचा भय, असुरक्षा और पहचान की राजनीति पर टिका होता है।
भारत में कट्टरवाद का स्वरूप अक्सर प्रत्यक्ष हिंसा से अधिक सामाजिक विषाक्तता के रूप में दिखाई देता है। सोशल मीडिया ने इस प्रवृत्ति को और तेज़ किया है, जहाँ आधी-अधूरी जानकारी, भावनात्मक अपील और आक्रामक भाषा तेजी से फैलती है। शोध बताते हैं कि ऑनलाइन प्लेटफॉर्म पर कट्टर सामग्री सामान्य कंटेंट की तुलना में अधिक तेज़ी से साझा होती है, क्योंकि वह भावनाओं—ख़ासकर ग़ुस्से और डर—को उकसाती है। इसका परिणाम यह होता है कि समाज में अविश्वास बढ़ता है और संस्थाओं पर भरोसा कम होता जाता है।
कट्टरवाद का आर्थिक असर भी कम गंभीर नहीं है। जिन समाजों में वैचारिक कठोरता हावी होती है, वहाँ निवेश, पर्यटन और मानव संसाधन का विकास प्रभावित होता है। वैश्विक अनुभव दिखाता है कि अस्थिरता और सामाजिक तनाव वाले देशों में विकास दर और मानव विकास सूचकांक दोनों पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। भारत जैसे विकासशील देश के लिए, जहाँ गरीबी, बेरोज़गारी और शिक्षा जैसी चुनौतियाँ पहले से मौजूद हैं, कट्टरता संसाधनों को वास्तविक समस्याओं से भटका देती है।
सबसे खतरनाक पहलू यह है कि कट्टरवाद लोकतांत्रिक मूल्यों को खोखला करता है। लोकतंत्र बहुमत से नहीं, बल्कि बहस, सहमति और अल्पमत के सम्मान से चलता है। जब विचारधारा कठोर हो जाती है, तो संस्थाएँ दबाव में आती हैं—चाहे वह मीडिया हो, विश्वविद्यालय हों या न्यायिक ढाँचा। इतिहास गवाह है कि जहाँ भी कट्टरता हावी हुई, वहाँ स्वतंत्रता सीमित हुई और अंततः समाज को उसकी कीमत चुकानी पड़ी।
विश्व स्तर पर कई देशों ने यह अनुभव किया है कि कट्टरवाद का कोई स्थायी समाधान दमन मात्र नहीं हो सकता। शिक्षा, आलोचनात्मक सोच और आर्थिक अवसर ऐसे कारक हैं जो वैचारिक कठोरता को कमजोर करते हैं। जिन समाजों में युवाओं को पहचान के बजाय अवसर मिलते हैं, वहाँ कट्टर विचारों की पकड़ अपेक्षाकृत कमजोर होती है। भारत के संदर्भ में भी यही सबक प्रासंगिक है—समावेशी विकास, गुणवत्तापूर्ण शिक्षा और संवाद की संस्कृति ही दीर्घकालिक समाधान हो सकती है।
अंततः कट्टरवाद किसी एक विचारधारा की समस्या नहीं, बल्कि विचारधारा के पतन की अवस्था है। जब सोच आगे बढ़ना छोड़ देती है, तब वह हथियार बन जाती है। भारत और दुनिया के लिए चुनौती यह नहीं है कि मतभेद कैसे खत्म किए जाएँ, बल्कि यह है कि मतभेदों के साथ कैसे जिया जाए। क्योंकि इतिहास यही बताता है—जहाँ विचार खुले रहते हैं, वहाँ समाज आगे बढ़ता है; और जहाँ विचार बंद हो जाते हैं, वहाँ नुकसान केवल विरोधियों का नहीं, पूरे समाज का होता है।





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