
कबीर पंथ में तीन बार साहेब बंदगी कहने के निहितार्थ
दया शंकर चौधरी
संत कबीर दास जी के 620वें प्राकट्य उत्सव के मौके पर गुरुवार (28 जून 2018) को मगहर पहुंचे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने संत कबीर की समाधि व मजार पर जाकर शीश झुकाया। उनको नमन किया। आजादी के बाद पहली बार देश के किसी प्रधानमंत्री के यहां पर आने को लेकर कबीरपंथियों में खासा उत्साह भी देखने को मिला। प्रधानमंत्री मोदी का यह दौरा इस लिए भी खास रहा जब उन्होंने तीन बार साहेब बंदगी बोला... चलिए समझते हैं पीएम मोदी ने क्यों तीन बार साहेब बंदगी का उल्लेख किया...
प्रधानमंत्री का यह दौरा राजनीतिक और सामाजिक दृष्टि से भी बेहद खास रहा। अपने संबोधन के अंत में उन्होंने तीन बार साहेब बंदगी कहा। इसके भी अपने ही मायने हैं। हालांकि काफी लोगों को इसके मायने भी नहीं पता हैं। तो चलिए आज हम इसके मायने भी आपको बता देते हैं। दरअसल, साहेब बंदगी तीन बार बोला जाता है। कबीरपंथी इसका अभिवादन के रूप में प्रयोग करते हैं। जम्मू में कबीरपंथियों की अच्छी खासी संख्या है। वहां कबीरपंथियों को साहेब बंदगी पंथ ही कहा जाता है। इस क्षेत्र में साहेब बंदगी का तात्पर्य है, जो भी हमारे सामने हैं उनका वंदन करने से।
साहेब बंदगी को लेकर मान्यताएं
साहेब बंदगी के संबंध में कबीर मठ के महंत विचारदास के अनुसार कवि की इस संबंध में तीन मान्यताएं हैं- साहेब सद्गुरु कबीरदास जी के लिए प्रयोग किया जाता है। बंदगी का अर्थ तमोगुण, रजोगुण के बंधन से मुक्त करके सतोगुण की ओर ले जाना है। अर्थात हे साहेब हमें सांसारिक बंधनों से मुक्त करें। तमोगुण के तहत, तामसिक वृत्ति आती हैं इसमें मांस-मदिरा, पीड़ितों को सताने की भावना, रजोगुण में भोग करने की प्रवृत्ति, सतोगुण में सात्विक वृत्ति अर्थात दूसरों का कल्याण करने की भावना आती है। अर्थात हे सदगुरु साहेब हमें तमोगुण, रजोगुण के बंधन से मुक्त करके सतोगुण की ओर ले चलें। संसार में तीन प्रकार के दुख होते हैं। इसमें दैहिक, दैविक, भौतिक तापा हैं। दैहिक का अर्थ शारीरिक कष्ट से है, वहीं दैविक का अर्थ प्राकृतिक आपदा तथा भौतिक दुख का तात्पर्य चोरी होना, हादसा होना है। अर्थात हे सदगुरु कबीर साहेब हमें इन दुखों से दूर करें।
वंचितों, शोषितों के मसीहा थे कबीर
कबीर साहेब को वंचितों, दलितों, पिछड़ों, शोषितों, साम्प्रदायिक सौहार्द और सामाजिक एकता का मसीहा माना जाता रहा है। कबीर ने सामाजिक समरसता पर विशेष जोर दिया था। वे अपने समय से बहुत आगे सोचते थे। उन्होंने एक दोहे में कहा भी है.....
जग में बैरी कोई नहीं, जो मन शीतल होय।
यह आपा तो डाल दे, दया करे सब कोय।
प्रधानमंत्री मोदी ने भी कहा कि संत कबीर कहते हैं जाति न पूछो साधू की, पूछ लीजिये ज्ञान। मोदी ने कहा कि कबीर ने इस धारणा को तोड़ा कि मगहर में देह त्याग करने वाले स्वर्ग नहीं जाते।
बताया क्यों गए मगहर
यह सवाल करते हुए कि क्या आप जानते हैं कि कबीर मगहर क्यों गए थे, उन्होंने कहा कि उस समय एक धारणा थी कि मगहर में जिसकी मृत्यु होती है, वह स्वर्ग नहीं जाता। इसके उलट काशी में जो शरीर त्याग करता है, वो स्वर्ग जाता है। उस समय मगहर को अपवित्र माना जाता था लेकिन संत कबीरदास इस पर विश्वास नहीं करते थे। अपने समय की कुरीतियों व अंधविश्वासों को तोड़ने के लिए ही वह मगहर गए और वहीं पर समाधि ली। हालांकि उनका जन्मस्थान वाराणसी था। इसी पर कबीर दास जी ने कहा था कि...
क्या काशी क्या ऊसर मगहर, राम हृदय बस मोरा। जो कासी तन तजै कबीरा, रामे कौन निहोरा।
(यानी काशी हो या फिर उजाड़ मगहर मेरे (कबीर के) लिए दोनों ही बराबर हैं क्योंकि मेरे हृदय में राम बसे हैं। अगर कबीर की आत्मा काशी में इस तन को त्यागकर मुक्ति प्राप्त कर ले तो इसमें राम का कौन सा एहसान है। संत कबीर दास के निर्वाण स्थल मगहर में कभी लोगों को आने में डर लगता था। सब की यही धारणा थी कि यह नरक का द्वार है। संत कबीर ने लोगों की इस सोच को बदला।
कौन थे कबीर
कबीर या भगत कबीर 15वीं सदी के भारतीय रहस्यवादी कवि और संत थे। वे हिन्दी साहित्य के भक्तिकालीन युग में ज्ञानाश्रयी-निर्गुण शाखा की काव्यधारा के प्रवर्तक थे। इनकी रचनाओं ने हिन्दी प्रदेश के भक्ति आंदोलन को गहरे स्तर तक प्रभावित किया। उनका लेखन सिक्खों के आदि ग्रंथ में भी देखा जा सकता है। वे हिन्दू धर्म व इस्लाम के आलोचक थे। उन्होंने कई धार्मिक प्रथाओं की सख्त आलोचना की थी। उनके जीवनकाल के दौरान हिन्दू और मुसलमान दोनों ने उन्हें अपने विचार के लिए धमकी दी थी। कबीर पंथ नामक धार्मिक सम्प्रदाय इनकी शिक्षाओं के अनुयायी हैं। जन्म स्थान के बारे में विद्वानों में मतभेद है परन्तु अधिकतर विद्वान इनका जन्म काशी में ही मानते हैं, जिसकी पुष्टि स्वयं कबीर का यह कथन भी करता है।
काशी में परगट भये, रामानंद चेताये
कबीर के गुरु के सम्बन्ध में प्रचलित कथन है कि कबीर को उपयुक्त गुरु की तलाश थी। वह वैष्णव संत आचार्य रामानंद को अपना गुरु बनाना चाहते थे, लेकिन उन्होंने कबीर को शिष्य बनाने से मना कर दिया लेकिन कबीर ने अपने मन में ठान लिया कि स्वामी रामानंद को ही हर कीमत पर अपना गुरु बनाऊंगा। इसके लिए कबीर के मन में एक विचार आया कि स्वामी रामानंद जी सुबह चार बजे गंगा स्नान करने जाते हैं, उसके पहले ही उनके जाने के मार्ग में सीढ़ियों पर लेट जाऊँगा और उन्होंने ऐसा ही किया। एक दिन, एक पहर रात रहते ही कबीर पंचगंगा घाट की सीढ़ियों पर गिर पड़े। रामानन्द जी गंगास्नान करने के लिये सीढ़ियाँ उतर रहे थे कि तभी उनका पैर कबीर के शरीर पर पड़ गया। उनके मुख से तत्काल 'राम-राम' शब्द निकल पड़ा। उसी राम को कबीर ने दीक्षा-मंत्र मान लिया और रामानन्द जी को अपना गुरु स्वीकार कर लिया।जीविकोपार्जन के लिए कबीर "जुलाहे" का काम करते थे। अब आइये समझते हैं कबीर के पैतृक व्यवसायिक नाम जुलाहा अथवा कोरी के सम्बंध में...।
कोरी अथवा कोली (भारतीय हिन्दू जाति)
कोरी (अथवा कोली) एक भारतीय जाति है जो पारम्परिक रूप से बुनाई का काम करते हैं।कोरी लोग हिमाचल प्रदेश, उत्तर प्रदेश और उत्तराखण्ड में अनुसूचित जाति में वर्गीकृत किये गये हैं।
नाम "कोरी" की व्युत्पति शब्द "कोरा" (साफ कपड़ा) से हुई है जो उनके पारम्परिक व्यवसाय को निरूपित करता है। कुछ कोरी लोग अपने आप को कबीर के वंशज मानते हैं। शब्द कोली का अर्थ मकड़ी जाल बनाने वाले होता है जो उनके बुनाई के व्यवसाय की ओर इंगित करता है। कोरी समाज की उप जातियों में कबीरपंथी, तंतुवाय, कोठार, विनोदिया, शाक्य, बुनकर, सकवार, महावर, माहौर, सूत्रकार और अनुरागी आदि की गणना की जाती है। 2011 की जनगणना के अनुसार उत्तर प्रदेश में अनुसुचित जाति कोरी की कुल आबादी 2,293,937 है। (M. P. S. Chandel (1991). Democratic Transformation of a Social Class. मित्तल पब्लिकेशन्स. पृ॰ 49)
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